अपने जीवन में मैं तीन बातों को प्रधान पद देता हूँ। उनमें पहली है उद्योग। अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई ताल्लुक ही नहीं रहता। और जहां उद्योग नहीं वहां सुख कहां? मेरे मत से जिस देश से उद्योग गया उस देश को भारी घुन लगा समझना चाहिए। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए, फि र वह उद्योग चाहे जिस तरह का हो। पर बिना उद्योग के बैठना काम की बात नहीं।
स्त्रियों के लिए तो यह बहुत ही उपयोगी साधन है। उद्योग के बिना मनुष्य को कम खाली नहीं बैठना चाहिए। आलस्य के समान शत्रु नहीं है। किसी को नींद आती हो तो सो जाय, इस पर मैं कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन जाग उठने पर समय आलस्य में नहीं बिताना चाहिए। इस आलस्य की वजह से ही इम दरिद्री हो गये, परतंत्र हो गये। इसीलिए हमें उद्योग की ओर झुकना चाहिए।
दूसरी बात जिसकी मुझे धुन है, वह भक्ति मार्ग है। बचपन से ही मेरे मन पर यदि कोई संस्कार पड़ा है तो वह भक्ति मार्ग का है। उस समय मुझे माता से शिक्षा मिली। आगे चलकर आश्रम में दोनों वक्त की प्रार्थना करने की आदत पड़ गई। इसलिये मेरे अन्दर वह खूब हो गई। पर भक्ति के माने ढोंग नहीं हैं। हमें उद्योग छोडक़र झूठी भक्ति नहीं करनी है। दिन भर उद्योग करके अन्त में शाम को और सुबह भगवान का स्मरण करना चाहिए। दिनभर पाप करके, झूठ बोलकर, लब्बारी-लफ्फाजी करके प्रार्थना नहीं होती। वरन् सत्कर्म करके दिन भर सेवा में बिताकर के वह सेवा शाम को भगवान् को अर्पण करनी चाहिए। हमारे हाथों अनजानें हुए पापों को भगवान क्षमा करता है।
पाप धन आवे तो उसके लिए तीव्र पश्चाताप होना चाहिए। ऐसों को पाप ही भगवान माँफ करता हैं। रोज१५ मिनट ही क्यों न हो, सबको - लडक़ों को, स्त्रियों को - इकट्ठे होकर प्रार्थना करनी चाहिए। जिस दिन प्रार्थना न हो वह दिन व्यर्थ गया समझना चाहिए। मुझे तो ऐसा ही लगता है। सौभाग्य से मुझे अपने आसपास भी ऐसी ही मंडली मिल गई है। इससे मैं अपने को भागयवान मानता हुं। अभी मेरे भाई का पत्र आया है। बाबा जी उसके बारे में लिख रहे हैं कि आजकल वह रामचंद्रभाई के ग्रन्थ पढ़ रहे हैं। उन्हें उस साधु के सिवाय और कुछ नहीं सूझ रहा है। इधर उसे रोग ने घेर रखा है, पर उसे उसकी परवा नहीं है। मुझे भाई भी ऐसा ही थी। ज्ञानदेव ने लिखा है कि भगवान् कहते हैं - मैं रोगियों के हृदय में न मिलंू, सूर्य में न मिलूं और कहीं भी न मिंलूं, तो जहां कीर्तन - नामघोष चल रहा है वहाँ तो जरूर ही मिलूंगा। लेकिन यह कीर्तन कर्म करने, उद्योग करने के बाद ही करने की चीज है। नही तो वह ढोंग हो जायगा। मुझे इस प्रकार के भक्ति मार्ग की धुन है।
तीसरी और एक बात की मुझे धुन है, पर सबके काबू की वह चीज नहीं हो सकती। वह चीज है खूब सीखना और खूब सिखाना। जिसे जो आता है उसे वह दूसरे को सिखाये और जो सीख सके उसे वह सीखे। कोई बुडढ़ा मिल जाय तो उसे वह सिखाये। भजन सिखाये, गीता पाठ करावे, कुछ न कुछ जरूर सिखाये। पाठशाला की तालीम पर मुझे विश्वास नहीं है। पांच-छह घंटों बच्चों को बिठा रखने से उनकी तालीम कभी नहीं होती। अनेक प्रकार के उद्योग चलने चाहिए और उसमें एक-आध घटा सिखाना काफ ी है। काम में से ही गाणित इत्यादि सिखाना चाहिए। क्लास इस तरह के होने चाहिये कि एक पैसा मजदूरी मिली तो उसे पहला दर्जा और उससे ज्यादा मिली तो दूसरी दर्जा। इसी प्रकार से उन्हें उद्योग सिखाकर उसी में शिक्षा देनी चाहिए।
मेरी मां 'भक्ति-मार्ग-प्रदीप' पढ़ रही थी। उसे पढऩा कम आता था, पर एक-एक अक्षर टो-टोकर पढ़ रही थी। एक दिन एक भजन को पढऩे में उसने १५ मिनट खर्च किये। मैं ऊपर बैठा था। नीचे आया और उसे वह भजन सिखा दिया। और पढ़ा कर देखा, पन्द्रह-बीस मिनट में ही वह भजन उसे ठीक आ गया। उसके बाद रोज मैं उसे कुछ देर तक बताता रहता था। उसकी वह पुस्तक पूरी करा दी। इस प्रकार जो-जो सिखाने लायक हो वह सिखाते रहना चाहिए और सीखते भी रहना चाहिए। पर यह सबसे बन आने की बात नहीं है। पर उद्योग और भक्ति तो सबसे बन आ सकती है। उन्हें करना चाहिए और इस उद्योग के सिवाय मुझे तो दूसरा सुख का उपाय दिखाई नहीं देता हैं।
- आचार्य विनोबा भावे
(अखंड ज्योति, १९५२ जून)