ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
उस प्राण स्वरुप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

Wednesday 27 February, 2008

श्रद्धा

"श्रद्धा किसे कहते हैं? आदर्शों से प्यार को। दुनिया में जितने भी महापुरुष हुए हैं, एक ही आधार पर कि उनके भीतर श्रद्धा का समावेश हुआ। जो भी आप इतिहास में पढते हैं महापुरुषों के बारे में उनमें एक ही बात का उल्लेख मिलता है कि उनने सिद्धांतों को प्यार किया, आदर्शों को प्यार किया, मुसीबतें उठाईं, घर वालों का कहना नहीं माना, अपनी कमजोरियों का मुकाबला किया और श्रेष्ठ मार्ग पर बढते-बढते वहाँ तक चले गए, जैसे पर्वतरोही एवरेस्ट के शिखर पर बढते-चढते जा पहुँचते हैं। श्रद्धा व्यक्ति को उँचा उठाती है, सिद्धान्तों के प्रति निष्ठावान बनाती है, क्या करना चाहिए, इसके बारे में सेकेंडों में फैसला कर देती है। असमंजस नहीं रहता। यह करें कि न करें - यह सवाल ही पैदा नही होता। श्रद्धा अगर आपके पास है तो अपनी अंतरात्मा यह कहेगी कि हमको श्रेष्ठ काम करना चाहिए और आदर्शों की स्थापना करनी चाहिए। दुनिया क्या कहेगी, इसकी चिंता न करें।"

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Thursday 21 February, 2008

परिवर्तन

जीवन में सकारात्मक परिवर्तन संभव है।दुख का सुख में परिवर्तन, शक्तिहीनता का शक्तिसंपन्नता में परिवर्तन, यहाँ तक कि गुलामी का बादशाहत में परिवर्तन घटित हो सकता है, परंतु तभी जब कोई स्वयं चाहे। बीते इतिहास के पन्ने कथा सुनाते हैं कि स्वामी रामतीर्थ नें अमेरिका में जाकर घोषणा की -

"मित्रो! मैं तुम्हारे लिए परिवर्तन का संदेश ले कर आया हूँ। मैं तुम्हें वह रहस्य बताने आया हूँ, जिसे जानकर तुम अपने दुःख को सुख में, असहायता को शक्तिसंपन्नता में और दासता को प्रभुता में परिवर्तित कर सकते हो। हाँ! तुम भी, तुम सभी भी बन सकते हो सम्राट।"
उन्हें सुनने वाले चौंके - भला इस संसार में सभी एक साथ सम्राट कैसे बन सकते हैं? उत्तर में स्वामी रामतीर्थ नें हँसते हुए कहा -
"हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहाँ सभी सम्राट हो सकते हैं। हाँलाकि वर्तमान का सच यही है कि अभी हम जिस संसार को जानते हैं, वहाँ सभी गुलाम हैं। बस, वे स्वयं को सम्राट समझने के भ्रम में जरुर हैं।"

महात्मा ईसा नें कहा था - परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है ओर हममें से प्रायः हरेक ने इस ओर से मुँह मोड रखा है। हम तो बस, बाहर की दुनिया में संघर्ष कर रहे हैं। बाहर का द्वार दरिद्रता की ओर ले जाता है। वासनाएँ, तृषणाएँ, कामनाएँ कभी किसी को मुक्त नहीं करतीं, बल्कि वे सूक्ष्म से सूक्ष्म और सख्त से सख्त बंधनों में बाँध लेती हैं। वासना की साकलों से मजबूत साँकलें न तो अभी तक बनाई जा सकी हैं और न आगे कभी बनाई जा सकेंगी। दरअसल इतना मजबूत फौलाद और कहीं होता भी नहीं हैं। इन अदृश्य जंजीरों से बँधा हुआ व्यक्ति न तो सुखी हो सकता है और न स्वतंत्र और न शक्तिसंपन्न।

यह तो केवल तभी संभव है, जब जीवन में परिवर्तन का पवन प्रवाहित न हो। बहिर्मुखी वृत्तियाँ अंतर्मुखी हों, संघर्ष संस्कारों कि शुद्धि के लिए हो। प्रतियोगिता स्वयं को पहचानने और पाने के लिए हो। निश्चय ही जो स्वयं को पहचान सकें, पा सकें, वे ही अपने दुःख को सुख में, असहायता को शक्तिसंपन्नता में और दासता को बादशाहत में परिवर्तित कर सकते हैं।

 - (अखण्ड ज्योति, अक्टूबर २००७, पृष्ठ ३)