ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
उस प्राण स्वरुप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

Monday 11 April, 2011

आस्था और विश्वास के प्रति विद्रोह का नाम है भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार भौतिक पदार्थ नहीं है | यह मनुष्य की अंतर्निहित चारित्रिक दुर्बलता है | जो मानव के नैतिक मूल्य को डिगा देती है | यह एक मानसिक समस्या है | भ्रष्टाचार धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, समाज, इतिहास एवं जाति की सीमाएँ भेदकर अपनी व्यापकता का परिचय देता है | वर्तमान समय में शासन, प्रशासन, राजनीति एवं सामाजिक जीवनचक्र भी इससे अछूते नहीं हैं | इसने असाध्य महामारी का रूप ग्रहण कर लिया है | यह किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं है वरन् समस्त विश्व की है |

आचार्य कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति “अर्थशास्त्र' में भ्रष्टाचार का उल्लेख इस तरह से किया है,” अपि शक्य गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम्| न तु प्रच्छन्नं भवानां युक्तानां चरतां गति | अर्थात् आकाश में रहने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किंतु राजकीय धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधि से पार पाना कठिन है | कौटिल्य ने भ्रष्टाचार के आठ प्रकार बताये हैं | ये हैं प्रतिबंध, प्रयोग, व्यवहार, अवस्तार, परिहायण, उपभोग, परिवर्तन एवं अपहार |

जनरल नेजुशन ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय कैंसर की मान्यता प्रदान की है | उनके अनुसार यह विकृत मन मस्तिष्क की उपज है | जब समाज भ्रष्ट हो जाता है, तो व्यक्ति और संस्थाओं का मानदंड भी प्रभावित होता है | ईमानदारी और सच्चाई के बदले स्वार्थ और भ्रष्टता फैलती है |

इस्लामी विद्वान् अब्दुल रहमान इबन खाल्दुन (१३३२ - १४०६) ने कहा, व्यक्ति जब भोगवाद वृत्ति का अनुकरण करता है, तो वह अपनी आय से अधिक प्राप्ति की प्रबल कमाना करता है | इसलिए वह मर्यादा की हर सीमाएँ लाँघ जाना चाहता है और जहाँ ऐसा प्रयास सफल होता है, तो भ्रष्टाचार का 'चेन रिएक्शन' प्रारंभ होता है |

भ्रष्टाचार तीन तरह के अर्थों में प्रयुक्त होता है, रिश्वत, लूट-खसोट और भाई - भतीजावाद | इन तीनों की प्रकृति एक समान होती है | अगर इसके चरित्र का विश्लेषण किया जाए, तो इस तरह होगा, यह सदा एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है | जब यह दुष्कृत्य एक व्यक्ति द्वारा होता है, तो उसे धोखेबाज कहते हैं और एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है, तो भ्रष्टाचार कहलाता है | मुख्यतः यह गोपनीय कार्य है | व्यक्ति आपसी मंत्रणा कर अपने निहित स्वार्थ हेतु यह कदम उठाते हैं | इसमें नियम और कानून का खुला उल्लंघन नहीं किया जाता है, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से जालसाजी की जाती है |

भ्रष्टाचार उन्मूलन हेतु केवल कानून बनाना ही एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता | इसके लिए व्यक्ति के अन्दर चारित्रिक सुदृढ़ता, ईमानदारी और साहस होना अनिवार्य है | क्योंकि भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से जूझने के लिए अंदर और बाहर दोनों मजबूत होना चाहिए | भ्रष्टाचार की जड़ें इन दोनों क्षेत्रों में गहरी हैं | अतः जागरूकता यह पैदा की जाए कि व्यक्ति को लोभ, मोह को छोड़कर साहस एवं बलशाली होना चाहिए | यह विचार एवं भाव सभी जनों के अंदर से उमगे, तो ही भ्रष्टाचाररूपी महाकुरीति का उन्मूलन संभव है |

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अखंड ज्योति - मई २००१ - पृष्ठ - ३०

विविध धर्म-सम्प्रदायों में गायत्री मंत्र का भाव सन्निहित है

१. हिन्दू - ईश्वर प्राणाधार, दुखनाशक तथा सुखस्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दे।
(ऋग्वेद ३.६२.१०, यजुर्वेद ३६.३, सामवेद १४६२)
२. यहूदी - हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ प्रदर्शन कर; मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा। 
(पुराना नियम भजन संहिता ५.८)

३. शिन्तो - हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें, परन्तु हमारे ह्रदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हों। हमारे कान चाहे अपवित्र बातें सुनें, तो भी हमारे ह्रदय में अभद्र बातों का अनुभव न हो। 
(जापानी)

४. पारसी - वह परमगुरु (अहुरमज्द - परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भण्डार के कारण, राजा के सामान महान है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकार से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।
(अवेस्ता २७.१३)

५. दाओ (ताओ) - दाओ (ब्रह्म) चिंतन तथा पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही उत्तम धर्म है।
(दाओ उपनिषद्)

६. जैन - अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार।

७ बौद्ध धर्म - मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, में संघ की शरण में जाता हूँ।
(दीक्षा मंत्र/त्रिशरण)

८. कनफ्यूशस - दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा की तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते।

९. ईसाई - हे पिता, हमें परीक्षा में न डाल; परन्तु बुराई से बचा; क्योंकि राज्य; पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही है।
(नया नियम मत्ती ६.१३)

१०. इस्लाम - हे अल्लाह, हम तेरी ही वंदना करते तथा तुझी से सहायता चाहते हैं। हमें सीधा मार्ग दिखा; उन लोगों का मार्ग, जो तेरे कृपापात्र बने, न कि उनका, जो तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए।
(कुरान सूरा अल - फ़ातिहा)

११. सिख - ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है। वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, निर्वैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है। वह गुरु कि कृपा से जाना जाता है।
(ग्रन्थ साहिब, जपुजी)

१२. बहाई - हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया हे। तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा नहीं है। तो ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर।
(निगूढ़ वचन)

 - शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

Sunday 10 April, 2011

गायत्री ही युग शक्ति क्यों?

मनुष्य मात्र को जीवन लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ गुरुमंत्र - गायत्री महामंत्र

मनुष्य मात्र को उज्जवल भविष्य प्रदान करने में सक्षम गायत्री महाविद्या - सबके लिए सुलभ, सबके लिए साध्य, सबके लिए हितकर। इसे समझें, अपनाएँ, साधें और अनुपम लाभ उठायें।

ज्ञान (मार्गदर्शक बोध सूत्र)

१. ज्ञानपक्ष - गायत्री के ज्ञानपक्ष को उच्चस्तरीय तत्त्व ज्ञान की, ब्रह्मविद्या की, ऋतंभरा प्रज्ञा की संज्ञा दी जा सकती है। इसका उपयोग आस्थाओं और आकांशाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आवश्य क प्रशिक्षण के रूप में किया जा सकता है। ज्ञान-यज्ञ, विचारक्रांति आदि के बौद्धिक उत्कृष्टता के साधन इसी आधार पर जुटते हैं। लेखनी, वाणी एवं दृश्य-श्रव्य जैसे साधनों का उपयोग इसी निमित्त होता है। स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन-मनन की गतिविधियाँ इसी के निमित्त चलती हैं।

विज्ञान (दिव्यता प्रदायक श्रेष्ठ उपचार)

२. विज्ञान पक्ष - मानवी सत्ता के अंतराल में इतनी महान संभावनाएँ और क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में भरी पड़ी हैं कि उन्हें प्रकारांतर से ब्रह्मचेतना की प्रतिकृति (ट्रू कापी) कहा जा सके। अंतराल की प्रसुप्ति ही दरिद्रता है और उसकी जागृति में सम्पन्नता का महासागर लहलहाता देखा जा सकता है। साधना विज्ञान के माध्यम से जो उसे जगाने, साधने और सदुपयोग करने में समर्थ हो सके, वे महान कहलाये, स्वयं धन्य बने हैं और अपने संपर्क क्षेत्र के जन-समुदाय एवं वातावरण को धन्य बनाया है।

युगशक्ति - परिवर्तन व्यक्ति के अंतराल का होना है। दृष्टिकोण बदला जाना है। आस्थाओं का परिष्कार किया जाना है और आकांशाओं का प्रवाह मोड़ना है। सदाशयता का पक्षधर मनोबल उभारना है। आत्मज्ञान प्राप्त करना और आत्म-गौरव जगाना है, यही है युग परिवर्तन का मुख्य आधार। आतंरिक परिष्कार की प्रक्रिया ही व्यक्ति की उत्कृष्टता और समाज की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होगी। सारा प्रयास-पुरुषार्थ अन्तर्जगत् से सम्बंधित है। इसलिए साधन भी उसी स्तर के होने चाहिए। सामर्थ्य ऐसी होनी चाहिए, जो अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर सकने के उपयुक्त सिध्द हो सके। निश्चित रूप से यह कार्य आत्मशक्ति का ही है। उत्पादन और उपयोग उसी का किया जाना है।युग निर्माण के लिए इसी उर्जा का उपार्जन आधारभूत काम समझा जा सकता है। ऐसा काम, जिसे करने की आवश्यकता ठीक इन्ही दिनों है। सर्वसमर्थ परमात्मा के छोटे घटक आत्मा की मूर्छना को जागृति में बदल देने की प्रक्रिया आध्यात्म-साधना के विभिन्न विधि-विधानों में गायत्री उपासना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसुलभ मन गया है। आदिकाल से लेकर आज तक उस महाविज्ञान के सम्बन्ध में अनुभवों और प्रयोगों की विशालकाय शृंखला जुडती चली आई है। प्रत्येक शोध में उसकी नितनूतन विशेषताएँ उभरती चली आई हैं। प्रत्येक प्रयोग में उसके अभिनव शक्ति स्रोत प्रकट होते रहे हैं।

 - शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार