ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
उस प्राण स्वरुप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

Thursday 15 September, 2011

मेरे जीवन के तीन प्रमुख सिद्धांत

अपने जीवन में मैं तीन बातों  को प्रधान पद देता हूँ। उनमें पहली है उद्योग। अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई ताल्लुक ही नहीं रहता। और जहां उद्योग नहीं वहां सुख कहां? मेरे मत से जिस देश से उद्योग गया उस देश को भारी घुन लगा समझना चाहिए। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए, फि र वह उद्योग चाहे जिस तरह का हो। पर बिना उद्योग के बैठना काम की बात नहीं।

घरों में उद्योग का वातावरण होना चाहिए। जिस घर में उद्योग की तालीम नहीं हैं उस घर के लडक़े जल्दी ही घर का नाश कर देंगे। संसार पहले ही दु:खमय है। जिसने संसार में सुख माना है उसके समान भ्रम में पड़ा और कौन होगा? रामदास जी ने कहा है - "मूर्खामाजी परम मूर्ख। जो संसारी मानी सुख।" अर्थात् वह मूर्खों मे भारी मूर्ख है जो मानता है कि इस संसार में सुख है। मुझे जो मिला दु:ख की कहानी सुनाता ही मिला। मैंने तो तभी से यह समझ लिया है और बहुत विचार और अनुभव के बाद मुझे इसका निश्चय हो गया है। पर ऐसे इस संसार का जरा सा सुखमय बनाना हो तो उद्योग के सिवाय दूसरा इलाज नहीं है, और आज सबके करने लायक और उपयोगी उद्योग सूत-कताई का है। कपड़ा हरेका  जरूरी है और प्रत्येक बालक,  स्त्री, पुरुष सूत कात कर अपना कपड़ा तैयार कर सकता हैं। चर्खा हमारा मित्र बन जायगा, शांतिदाता हो जायगा - बशर्ते कि हम उसे सम्हालें। दु:ख होने या मन उदास होने पर चर्खे को हाथ मे ले लें तो फ ौरन मन को आराम मिलता है। इसकी वजह यह है कि मन उद्योग में लग जाता है और दु:ख बिसर जाता है। गेटे नामक कवि का एक काव्य है उसमें उसने एक स्त्री का चित्र खींचा है। वह स्त्री बहुत शोक-पीड़ित और दुखी थी। अन्त में उसने तकली सम्हाली। कवि ने दिखाया है कि उसे उस तकली से सांत्वना मिली। मैं इसे मानता हूं।

स्त्रियों के लिए तो यह बहुत ही उपयोगी साधन है। उद्योग के बिना मनुष्य को कम खाली नहीं बैठना चाहिए। आलस्य के  समान शत्रु नहीं है। किसी को नींद आती हो तो सो जाय, इस पर मैं कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन जाग उठने पर समय आलस्य में नहीं बिताना चाहिए। इस आलस्य की वजह से ही इम दरिद्री हो गये, परतंत्र हो गये। इसीलिए हमें उद्योग की ओर झुकना चाहिए।

दूसरी बात जिसकी मुझे धुन है, वह भक्ति  मार्ग है। बचपन से ही मेरे मन पर यदि कोई संस्कार पड़ा है तो वह भक्ति मार्ग का है। उस समय मुझे माता से शिक्षा मिली। आगे चलकर आश्रम में दोनों वक्त  की प्रार्थना करने की आदत पड़ गई। इसलिये मेरे अन्दर वह खूब हो गई। पर भक्ति  के माने ढोंग नहीं हैं। हमें उद्योग  छोडक़र झूठी भक्ति  नहीं करनी है। दिन भर उद्योग करके अन्त में शाम को और सुबह भगवान का स्मरण करना चाहिए। दिनभर पाप करके, झूठ बोलकर, लब्बारी-लफ्फाजी करके प्रार्थना नहीं होती। वरन् सत्कर्म करके दिन भर सेवा में बिताकर के वह सेवा शाम को भगवान् को अर्पण करनी चाहिए। हमारे हाथों अनजानें हुए पापों को भगवान क्षमा करता है।

पाप धन आवे तो उसके लिए तीव्र पश्चाताप होना चाहिए। ऐसों को पाप ही भगवान माँफ  करता हैं। रोज१५ मिनट ही क्यों न हो, सबको - लडक़ों को, स्त्रियों को - इकट्ठे होकर प्रार्थना करनी चाहिए। जिस दिन प्रार्थना न हो वह दिन व्यर्थ गया समझना चाहिए। मुझे तो ऐसा ही लगता है। सौभाग्य से मुझे अपने आसपास भी ऐसी ही मंडली मिल गई है। इससे मैं अपने को भागयवान मानता हुं। अभी मेरे भाई का पत्र आया है। बाबा जी उसके बारे में लिख रहे हैं  कि आजकल वह रामचंद्रभाई के ग्रन्थ पढ़ रहे हैं। उन्हें उस साधु के सिवाय और कुछ नहीं सूझ रहा है। इधर उसे रोग ने घेर रखा है, पर उसे उसकी परवा नहीं है। मुझे भाई भी ऐसा ही थी। ज्ञानदेव ने लिखा है कि भगवान् कहते हैं - मैं रोगियों के हृदय में न मिलंू, सूर्य में न मिलूं और कहीं भी न मिंलूं, तो जहां कीर्तन - नामघोष चल रहा है वहाँ तो जरूर ही मिलूंगा। लेकिन यह कीर्तन कर्म करने, उद्योग करने के बाद ही करने की चीज है। नही तो वह ढोंग हो जायगा। मुझे इस प्रकार के भक्ति मार्ग की धुन है।

तीसरी और एक बात की मुझे धुन है, पर सबके काबू की वह चीज नहीं हो सकती। वह चीज है खूब सीखना और खूब सिखाना। जिसे जो आता है उसे वह दूसरे को सिखाये और जो सीख सके उसे वह सीखे। कोई बुडढ़ा मिल जाय तो उसे वह सिखाये। भजन सिखाये, गीता पाठ करावे, कुछ न कुछ जरूर सिखाये। पाठशाला की तालीम पर मुझे विश्वास  नहीं है। पांच-छह घंटों बच्चों को बिठा रखने से उनकी तालीम कभी नहीं होती। अनेक प्रकार के उद्योग चलने चाहिए और उसमें एक-आध घटा सिखाना काफ ी है। काम में से ही गाणित इत्यादि सिखाना चाहिए। क्लास इस तरह के होने चाहिये कि एक पैसा मजदूरी मिली तो उसे पहला दर्जा और उससे ज्यादा मिली तो दूसरी दर्जा। इसी प्रकार से उन्हें उद्योग सिखाकर उसी में शिक्षा देनी चाहिए।

मेरी मां 'भक्ति-मार्ग-प्रदीप' पढ़ रही थी। उसे पढऩा कम आता था, पर एक-एक अक्षर टो-टोकर पढ़ रही थी। एक दिन एक भजन को  पढऩे में उसने १५ मिनट खर्च किये। मैं ऊपर बैठा था। नीचे आया और उसे वह भजन सिखा दिया। और पढ़ा कर देखा, पन्द्रह-बीस मिनट में ही वह भजन उसे ठीक आ गया। उसके बाद रोज मैं उसे कुछ देर तक बताता रहता था। उसकी वह पुस्तक पूरी करा दी। इस प्रकार जो-जो सिखाने लायक हो वह सिखाते रहना चाहिए और सीखते भी रहना चाहिए। पर यह सबसे बन आने की बात नहीं है। पर उद्योग और भक्ति  तो सबसे बन आ सकती है। उन्हें करना चाहिए और इस उद्योग के सिवाय मुझे तो दूसरा सुख का उपाय दिखाई नहीं देता हैं।

 - आचार्य विनोबा भावे
(अखंड ज्योति, १९५२ जून)

Monday 11 April, 2011

आस्था और विश्वास के प्रति विद्रोह का नाम है भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार भौतिक पदार्थ नहीं है | यह मनुष्य की अंतर्निहित चारित्रिक दुर्बलता है | जो मानव के नैतिक मूल्य को डिगा देती है | यह एक मानसिक समस्या है | भ्रष्टाचार धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, समाज, इतिहास एवं जाति की सीमाएँ भेदकर अपनी व्यापकता का परिचय देता है | वर्तमान समय में शासन, प्रशासन, राजनीति एवं सामाजिक जीवनचक्र भी इससे अछूते नहीं हैं | इसने असाध्य महामारी का रूप ग्रहण कर लिया है | यह किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं है वरन् समस्त विश्व की है |

आचार्य कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति “अर्थशास्त्र' में भ्रष्टाचार का उल्लेख इस तरह से किया है,” अपि शक्य गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम्| न तु प्रच्छन्नं भवानां युक्तानां चरतां गति | अर्थात् आकाश में रहने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किंतु राजकीय धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधि से पार पाना कठिन है | कौटिल्य ने भ्रष्टाचार के आठ प्रकार बताये हैं | ये हैं प्रतिबंध, प्रयोग, व्यवहार, अवस्तार, परिहायण, उपभोग, परिवर्तन एवं अपहार |

जनरल नेजुशन ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय कैंसर की मान्यता प्रदान की है | उनके अनुसार यह विकृत मन मस्तिष्क की उपज है | जब समाज भ्रष्ट हो जाता है, तो व्यक्ति और संस्थाओं का मानदंड भी प्रभावित होता है | ईमानदारी और सच्चाई के बदले स्वार्थ और भ्रष्टता फैलती है |

इस्लामी विद्वान् अब्दुल रहमान इबन खाल्दुन (१३३२ - १४०६) ने कहा, व्यक्ति जब भोगवाद वृत्ति का अनुकरण करता है, तो वह अपनी आय से अधिक प्राप्ति की प्रबल कमाना करता है | इसलिए वह मर्यादा की हर सीमाएँ लाँघ जाना चाहता है और जहाँ ऐसा प्रयास सफल होता है, तो भ्रष्टाचार का 'चेन रिएक्शन' प्रारंभ होता है |

भ्रष्टाचार तीन तरह के अर्थों में प्रयुक्त होता है, रिश्वत, लूट-खसोट और भाई - भतीजावाद | इन तीनों की प्रकृति एक समान होती है | अगर इसके चरित्र का विश्लेषण किया जाए, तो इस तरह होगा, यह सदा एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है | जब यह दुष्कृत्य एक व्यक्ति द्वारा होता है, तो उसे धोखेबाज कहते हैं और एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है, तो भ्रष्टाचार कहलाता है | मुख्यतः यह गोपनीय कार्य है | व्यक्ति आपसी मंत्रणा कर अपने निहित स्वार्थ हेतु यह कदम उठाते हैं | इसमें नियम और कानून का खुला उल्लंघन नहीं किया जाता है, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से जालसाजी की जाती है |

भ्रष्टाचार उन्मूलन हेतु केवल कानून बनाना ही एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता | इसके लिए व्यक्ति के अन्दर चारित्रिक सुदृढ़ता, ईमानदारी और साहस होना अनिवार्य है | क्योंकि भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से जूझने के लिए अंदर और बाहर दोनों मजबूत होना चाहिए | भ्रष्टाचार की जड़ें इन दोनों क्षेत्रों में गहरी हैं | अतः जागरूकता यह पैदा की जाए कि व्यक्ति को लोभ, मोह को छोड़कर साहस एवं बलशाली होना चाहिए | यह विचार एवं भाव सभी जनों के अंदर से उमगे, तो ही भ्रष्टाचाररूपी महाकुरीति का उन्मूलन संभव है |

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अखंड ज्योति - मई २००१ - पृष्ठ - ३०

विविध धर्म-सम्प्रदायों में गायत्री मंत्र का भाव सन्निहित है

१. हिन्दू - ईश्वर प्राणाधार, दुखनाशक तथा सुखस्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दे।
(ऋग्वेद ३.६२.१०, यजुर्वेद ३६.३, सामवेद १४६२)
२. यहूदी - हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ प्रदर्शन कर; मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा। 
(पुराना नियम भजन संहिता ५.८)

३. शिन्तो - हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें, परन्तु हमारे ह्रदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हों। हमारे कान चाहे अपवित्र बातें सुनें, तो भी हमारे ह्रदय में अभद्र बातों का अनुभव न हो। 
(जापानी)

४. पारसी - वह परमगुरु (अहुरमज्द - परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भण्डार के कारण, राजा के सामान महान है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकार से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।
(अवेस्ता २७.१३)

५. दाओ (ताओ) - दाओ (ब्रह्म) चिंतन तथा पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही उत्तम धर्म है।
(दाओ उपनिषद्)

६. जैन - अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार।

७ बौद्ध धर्म - मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, में संघ की शरण में जाता हूँ।
(दीक्षा मंत्र/त्रिशरण)

८. कनफ्यूशस - दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा की तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते।

९. ईसाई - हे पिता, हमें परीक्षा में न डाल; परन्तु बुराई से बचा; क्योंकि राज्य; पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही है।
(नया नियम मत्ती ६.१३)

१०. इस्लाम - हे अल्लाह, हम तेरी ही वंदना करते तथा तुझी से सहायता चाहते हैं। हमें सीधा मार्ग दिखा; उन लोगों का मार्ग, जो तेरे कृपापात्र बने, न कि उनका, जो तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए।
(कुरान सूरा अल - फ़ातिहा)

११. सिख - ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है। वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, निर्वैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है। वह गुरु कि कृपा से जाना जाता है।
(ग्रन्थ साहिब, जपुजी)

१२. बहाई - हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया हे। तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा नहीं है। तो ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर।
(निगूढ़ वचन)

 - शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

Sunday 10 April, 2011

गायत्री ही युग शक्ति क्यों?

मनुष्य मात्र को जीवन लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ गुरुमंत्र - गायत्री महामंत्र

मनुष्य मात्र को उज्जवल भविष्य प्रदान करने में सक्षम गायत्री महाविद्या - सबके लिए सुलभ, सबके लिए साध्य, सबके लिए हितकर। इसे समझें, अपनाएँ, साधें और अनुपम लाभ उठायें।

ज्ञान (मार्गदर्शक बोध सूत्र)

१. ज्ञानपक्ष - गायत्री के ज्ञानपक्ष को उच्चस्तरीय तत्त्व ज्ञान की, ब्रह्मविद्या की, ऋतंभरा प्रज्ञा की संज्ञा दी जा सकती है। इसका उपयोग आस्थाओं और आकांशाओं को उच्चस्तरीय बनाने के लिए आवश्य क प्रशिक्षण के रूप में किया जा सकता है। ज्ञान-यज्ञ, विचारक्रांति आदि के बौद्धिक उत्कृष्टता के साधन इसी आधार पर जुटते हैं। लेखनी, वाणी एवं दृश्य-श्रव्य जैसे साधनों का उपयोग इसी निमित्त होता है। स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन-मनन की गतिविधियाँ इसी के निमित्त चलती हैं।

विज्ञान (दिव्यता प्रदायक श्रेष्ठ उपचार)

२. विज्ञान पक्ष - मानवी सत्ता के अंतराल में इतनी महान संभावनाएँ और क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में भरी पड़ी हैं कि उन्हें प्रकारांतर से ब्रह्मचेतना की प्रतिकृति (ट्रू कापी) कहा जा सके। अंतराल की प्रसुप्ति ही दरिद्रता है और उसकी जागृति में सम्पन्नता का महासागर लहलहाता देखा जा सकता है। साधना विज्ञान के माध्यम से जो उसे जगाने, साधने और सदुपयोग करने में समर्थ हो सके, वे महान कहलाये, स्वयं धन्य बने हैं और अपने संपर्क क्षेत्र के जन-समुदाय एवं वातावरण को धन्य बनाया है।

युगशक्ति - परिवर्तन व्यक्ति के अंतराल का होना है। दृष्टिकोण बदला जाना है। आस्थाओं का परिष्कार किया जाना है और आकांशाओं का प्रवाह मोड़ना है। सदाशयता का पक्षधर मनोबल उभारना है। आत्मज्ञान प्राप्त करना और आत्म-गौरव जगाना है, यही है युग परिवर्तन का मुख्य आधार। आतंरिक परिष्कार की प्रक्रिया ही व्यक्ति की उत्कृष्टता और समाज की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होगी। सारा प्रयास-पुरुषार्थ अन्तर्जगत् से सम्बंधित है। इसलिए साधन भी उसी स्तर के होने चाहिए। सामर्थ्य ऐसी होनी चाहिए, जो अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर सकने के उपयुक्त सिध्द हो सके। निश्चित रूप से यह कार्य आत्मशक्ति का ही है। उत्पादन और उपयोग उसी का किया जाना है।युग निर्माण के लिए इसी उर्जा का उपार्जन आधारभूत काम समझा जा सकता है। ऐसा काम, जिसे करने की आवश्यकता ठीक इन्ही दिनों है। सर्वसमर्थ परमात्मा के छोटे घटक आत्मा की मूर्छना को जागृति में बदल देने की प्रक्रिया आध्यात्म-साधना के विभिन्न विधि-विधानों में गायत्री उपासना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसुलभ मन गया है। आदिकाल से लेकर आज तक उस महाविज्ञान के सम्बन्ध में अनुभवों और प्रयोगों की विशालकाय शृंखला जुडती चली आई है। प्रत्येक शोध में उसकी नितनूतन विशेषताएँ उभरती चली आई हैं। प्रत्येक प्रयोग में उसके अभिनव शक्ति स्रोत प्रकट होते रहे हैं।

 - शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

Wednesday 30 March, 2011

असंख्य समस्याओं का एकमात्र हल - विचार-क्रान्ति

दुर्भाग्य को क्या कहा जाय जिसने हमारी विचार प्रणाली में विष घोल दिया और हम हर बात को उलटे ढंग से सोचने लगे। इस उल्टी बुद्धि का एक छोटा-सा नमूना देखा जाय। कई लोगों में सन्तान या लडक़ा नहीं होता। वस्तुत: यह लोग बहुत ही सुखी और सौभाग्यशाली हैं। बढ़ती हुई आबादी में और बढ़ोत्तरी करना - अन्न के लिए पराश्रित नागरिकों के लिए एक विशुद्ध पातक है। इन दिनों जो जितनी संतान बढ़ा रहा है वह देश को उतना ही संकट में डाल रहा है। इस पाप से जिन्हें अनायास की छुट्टी मिल गई वे सचमुच सौभाग्यवान हैं। बच्चों के पालन-पोषण से लेकर उन्हें स्वावलम्बी बनाने तक की प्रक्रिया कितनी महॅंगी और कष्टसाध्य है इसे सब जानते हैं। जितना श्रम, मनोयोग एवं खर्च लडक़े के लिये करना पड़ता उतना ही यदि भगवान के लिये किया जाय तो निस्सन्देह इसी जन्म में भगवान मिल सकता है। वही अनुदान यदि परमार्थ प्रयोग के लिए लगाया जाय तो उतने से ही असंख्य लोगों को प्रेरणा देने वाली एक संस्था चल सकती है। आजकल के लडक़े बड़े होने पर अभिभावकों को केवल दु:ख ही देते हैं। अपने हाथों की कमाई भी किसी अच्छे काम के लिये खर्च करनी हो तो लडक़े उसे रोकते हैं, वे चाहते हैं हराम का सारा माल हमें ही मिले, यहॉं तक कि अपनी बहिनों को देता देखें तो भी कुढ़ते और विरोध करते हैं।

कोई यह चाहता हो कि लडक़े का बाप बनकर बुढ़ापे का आधार मिल जाएगा तो और भी दुराशा मात्र हैं। कुत्ता पराये घर रहकर जिसका कुछ प्रयोजन पूरा करता है उसी के यहॉं रोटी पा लेता है। इसी तरह मनुष्य के लिये यह सोचना कि बेटे बिना बुढ़ापा न कटेगा नितान्त मूर्खता हैं। सुख-सौभाग्य से भरा-पूरा मनुष्य भी एक कल्पित अभाव को गढक़र उस कारण कितना उद्विग्न होता है।

अगले दिनों जब मानव जाति के उत्थान-पतन का सूक्ष्म विवेचन किया जाएगा तब समीक्षकों और अन्वेषकों को एक स्वर में यही स्वीकार करना पड़ेगा कि विकृतियों और उलझनों के इस युग में समस्त विपत्तियों की जननी विकृत विचारधारा की अभिवृद्धि ही थी और उसे पलटने के लिए केवल मात्र एक ही प्रयोग द्वारा सुव्यवस्थित रूप से कार्य हुआ और उस प्रयोग का नाम था - युग निर्माण योजना द्वारा संचालित ज्ञान-यज्ञ ।

- पं श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (४.४)

Sunday 27 March, 2011

चारों और से एक ही पुकार - बदलाव, बदलाव!

सौभाग्यशाली हम

इन दिनों चारों और परिवर्तन की बयार बह रही है। जिनकी आँखों पर पर्दा हो, धुंधलका छाया हो, वे संभवतः समय की इस विषमता को पहचान न पाएँ। जिनके चिंतन पर नकारात्मकता ही छाई हो, वे संभवतः यही कहें की कुछ नहीं होने वाला, दुनिया तो ऐसे ही चलती है, चलती रहेगी। थोड़ी उठापटक होकर रह जाएगी, कुछ नहीं बदलने वाला, पर जो दिव्यदर्शी हैं, जिन्हें भगवान की कृपा से समझदारी मिली है, जो परिवर्तनों द्वारा भविष्य का आंकलन कर पाते हैं, ऐसों को स्पष्ट दिखाई दे रहा है की २०११ से विश्वव्यापी परिवर्तनों की शृंखला आरम्भ होने जा रही है। चारों और से एक ही आवाज आने वाली है - परिवर्तन, बदलाव, बदलाव! अब इसे कोई रोक नहीं पायेगा। युग परिवर्तन का शुभारम्भ हो चुका है एवं यह आगामी दस वर्षों में पूरी तरह स्पष्ट दिखाई देने लगेगा। सौभाग्य की बात यह कि इस सब उठापटक की - वैचारिक परिवर्तन की धुरी हमारा प्यारा भारतवर्ष बनेगा।

एक महत्वपूर्ण भविष्यवाणी

श्री अरविन्द एवं स्वामी विवेकानंद ने अलग-अलग समय में एक भविष्यवाणी की थी, जो आज की इन घड़ियों पर लागू होती है। दोनों ने कहा कि ठाकुर श्री रामकृष्णदेव के जन्म (१८३६) के साथ ही युग परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है, पर इसकी पराकाष्ठा वाला स्वरुप १७५ वर्ष बाद ही दृष्टीगोचर होगा। इतना समय संधिकाल का है। खेत में निराई-गुड़ाई होती है, बीज डालते हैं, पर अगले ही दिन फसल नहीं आ जाती। वह अपना समय लेती है। हर बड़ा परिवर्तन समय मांगता है। मौसम को ही ले लें। नवरात्री काल की प्रसवपीड़ा भरी अवधि से गुजरे बिना गर्मी की तपन शांत होकर ठंढक का एहसास नहीं होता। इसी तरह वसंत की पराकाष्ठा हेमंत की ठिठुरन को समाप्त कर चैत्र नवरात्र में गर्मी के आगमन के रूप में दिखाई देती है। कविश्रेष्ठ कालिदास नें भारत को षडऋतुओं वाला अद्वितीय देश माना है एवं प्रकृति के सौंदर्य का बड़ा विलक्षण वर्णन किया है। जो ऋतु-परिवर्तन के इस चक्र को समझते हैं, वे जानते हैं की बदलाव ही प्रकृति का धर्म है - जो आज है वह कल नहीं रहेगा, बदलकर रहेगा।

दोनों महापुरुषों के अनुसार हम १७५ वर्ष की वेदना भरी, प्रसव पीड़ा समान, संक्रांतिकाल की अवधि पार कर अब सतयुग की वापसी की ओर बढ़ रहे हैं और यह समय, कितना विलक्षण संयोग है की २०११ से हमारी आराध्य सत्ता परमपूज्य गुरुदेव के जन्म शताब्दी वर्ष की वेला में आया है। २०११ में परम पूज्य गुरुदेव के जन्म के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं तथा अब तेजी से चारों ओर हर क्षेत्र में बदलाव का क्रम और भी प्रखरता से होता दीखना शुरू हो रहा है। हम स्वयं देखें, एक विश्लेषण करें, तो पाते हैं की विगत सौ वर्षों में कई असंभव से दीख पड़ने वाले कार्य किस तरह से संपन्न होते चले गए। एक-एक करके उनका जिक्र करते हैं। आपको स्वयं स्पष्ट होता चला जायेगा।

धूल-धूसरित हुए राजमुकुट भी

सौ वर्ष पहले भारत गुलाम था; भारत ही नहीं अगणित राष्ट्र परतंत्रता में जी रहे थे। लगता ही नहीं था की हम कभी आजाद होंगे। एक हवा तेजी से बही। पहले १८५७ की क्रांति का समय आया और उसके ५० वर्ष बाद न जाने कहाँ से गोखले, तिलक, गाँधी, सुभाष, भगतसिंह जन्म लेते और भारत को आजादी दिलाते चले गए। वातावरण बनाने में महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद एवं रमण महर्षि ने अपनी भूमिकाएँ निभाईं; वह अलग है। चारों और राजे-रजवाड़े थे - एक नहीं अगणित। सामंतशाही, जमींदारी, सहकारी के प्रचालन देखते-देखते समाप्त हो गए। राजमुकुट धूल-धूसरित होते चले गए। दास-दासियों की व्यवस्था थी। क्रांति अमेरिका में भी चली और अन्य देशों में भी। देखते-देखते उन्हें बेचने-खरीदने का प्रचलन समाप्त हो गया। सैकड़ों रखैल रखने वाले 'हरम' अब कहाँ हैं!

महाक्रान्ति की शृंखला

सतीप्रथा कभी इस देश पर कलंक बनी हुई थी। उसे धार्मिकता का बाना और पहना दिया गया था। राजा राममोहन राय जैसे महापुरुष आये और विधवा विवाह भी एक सच्चाई बन गयी। छूत-अछूत के बीच भेदभाव कितना जबरदस्त था। अभी कुछ दशक पहले तक भी एक अछूत-दलित को दबंग के घर के सामने बारात निकालने, उनके कुएँ से पानी पीने की मनाही थी। क्रांति का प्रवाह चला और देखते-देखते समता की धारा बहने लगी। छिटपुट प्रकरण आज भी होते हैं, पर यह कहने से कोई भी नहीं रोक सकता की आज सबको सामान अवसर प्राप्त हैं। हर वर्ग का व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। 'आरक्षण' शब्द का भले ही दुरुपयोग हुआ है, पर उसने सभी को समान अवसर प्रदान किए हैं। प्रतिभा है तो कोई जातिवाद के नाम पर दबा नहीं रह सकता। उसे पूरे अवसर मिलेंगे। यह बात आज से सौ वर्ष पूर्व सोची भी नहीं जा सकती थी।

नारी जागरण
परिवर्तन की यह शृंखला कहाँ तक गिनाएँ। नारीशक्ति को आज जो अधिकार प्राप्त हैं, यह उसके संघर्ष का तो परिणाम है ही, उस बदलाव की परोक्ष हवा के कारण भी है, जो सारे विश्व में बह रही है। जहाँ उसे दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता था, वहाँ आज बड़े-बड़े पदों पर सुशोभित है। पति-पत्नी, दोनों सामान अधिकार प्राप्त, कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रहे हैं। पढ़ाई के अवसर दोनों को ही प्राप्त हैं। कभी दोनों में भेद माना जाता था। आज लड़की होना सौभाग्य का चिन्ह माना जाता है। नारी स्वयं अपनी अवमानना करे तो बात अलग है, पर समय ने उसे जहाँ लाकर खड़ा कर दिया है, वहाँ उसका उत्कर्ष ही उत्कर्ष दिखाई देता है। साक्षरता, स्वावलंबन, नेतृत्व, सैन्य बल, सुरक्षा, चिकित्सा, हर क्षेत्र में आज नारी नर से आगे ही है और यह एक महापरिवर्तन से कम नहीं है।

जन-जन को अधिकार

पंचायती राज की स्थापना, सहकारिता आन्दोलन आदि ने देखते-देखते जन-जन को अधिकार दे दिया है। कोई किसी तरह की शिकायत नहीं कर सकता। भारत में राईट टू एजुकेशन (आर. टी. आई.) एवं सूचना का अधिकार (आर. टी. आई.) ने एक क्रांति ही कर दी है। अब कोई भी चीज, सूचना गोपनीय नहीं रह सकती। जनहित में उसे जाहिर करना ही होगा। हमारी न्याय व्यवस्था ने बड़ी ईमानदारी से लोकतंत्र के एक सशक्त प्रहरी - मानीटर की भूमिका निभाई है। सबके लिए न्यायलय का द्वार खुला है। लोकहित याचिका दायर कर आप प्रमाणों के साथ किसी भी अपराधी को खुला-छुट्टा घूमने से रोक सकते हैं। यह बात अलग है कि अभी भी आजादी के बाद हम ६४ वर्ष बाद भी ब्रिटिश क़ानून को ही ढो रहे हैं, इसीलिए कई कमियाँ हैं, पर समयानुसार यह भी व्यवस्थित होगा एवं आगामी दशक इसका साक्षी बनेगा। हमारी 'जुडीशीयरी' कि पारदर्शिता पूरे विश्व में एक अलग मिसाल बनी है।

नहीं बचेगा अधिनायकवाद

आन्दोलन पूरे विश्व को प्रभावित कर रहे हैं। अधिनायकवाद आज से सौ वर्ष पूर्व तीन-चौथाई विश्व पर छाया था। सोवियत रूस, चीन उससे मुक्त हुए और देखते-देखते आधी आबादी खुलेपन कि श्वास से जीने लगी। चीन के तियानामन चौक की क्रांति ने चीन को बदल कर रख दिया तो १९८९ में टूटी बर्लिन की दीवार ने यूरोप व रूस का नक्शा ही बदल दिया। अभी पिछले दिनों इजिप्ट, ट्यूनीशिया, यमन, जोर्डन जैसे देशों में जो आजादी के आन्दोलन चले हैं, वे इसी महापरिवर्तन प्रक्रिया के अंग हैं। कहीं भी, किसी को भी अब दबाकर नहीं रखा जा सकता। उसे मुक्त होना ही पड़ेगा, यह समय की मांग है एवं उसे हर किसी को स्वीकार करना ही पड़ेगा, मन से या बेमन से। यह स्पष्ट होता जा रहा है।

संचार की क्रांति

कम्युनिकेशन के क्षेत्र में हुई क्रांति ने पूरे विश्व को एक ग्लोबल ग्राम बना दिया है। इन्टरनेट, मोबाइल, ट्वीटर, फेसबुक आदि ने वह काम कर दिखाया है, जो कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता था। सारे विश्व को एक भाषा में - एक जाल में  - वर्ल्ड वाइड वेब में पिरोने का कार्य इतनी तेजी से विगत पच्चीस वर्षों में हुआ है कि इसे देख कर बदलाव की गति पर हैरानी होती है। आज इन्टरनेट जन-जन की भाषा है। उस पर नेटकास्ट हो रहा है। कोई भी किसी को दबाकर नहीं रख सकता। सच्चाई जन-जन तक पहुँच कर ही चैन ले रही है। तानाशाही मनोवृत्ति वाले शासक भी उस पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। इसके साथ मीडिया की क्रांति ने जन-जन को एकदूसरे से जोड़ दिया है। १९८० तक भी हम उस दुनिया की कल्पना नहीं कर सकते थे, जो की आयपौड, आयपैड, मोबाइल, टी.वी. की दुनिया है। विज्ञान के इन अविष्कारों ने हर सूचना हर व्यक्ति तक पहुँचाने का जिम्मा लिया है।


नेतृत्व लेगा वैज्ञानिक आध्यात्म

क्रांति से धर्मतंत्र भी अछूता नहीं रहा है। प्रगतिशील आध्यात्म ही अब स्वीकार्य है। चाहे वह पोप की आवाज हो या भारत के धर्मदिग्गजों की, हर कोई अब जनता की पारदर्शी निगाहों के सामने है। कभी मठाधीश भी पोप की तरह, जमींदारों की तरह जीते थे, अब परिवर्तन की आंधी में सभी धन-संग्रह कर भोग-विलास में जीने की सोच भी नहीं सकते। उन्हें विवश हो कर लोकसेवा के आराधना के कार्यों में स्वयं को नियोजित करना पड़ रहा है। यह बदलाव इतनी तेजी से हो रहा है व आगामी एक दशक में इतनी तीव्रगति पकड़ेगा कि कल्पनातीत होगा। धर्म का अब वैज्ञानिक स्वरुप होने जा रहा है। वैज्ञानिक आध्यात्मवाद ही जन-जन की भाषा बनने जा रहा है; यह एक वास्तविकता है।

भ्रष्टाचार पर लगाम

बदलाव के अपने कई पहलू हैं - नकारात्मक भी। वैश्वीकरण की आंधी में भोगवाद भी बढ़ा, भ्रष्टाचार भी बढ़ा, प्रत्यक्षवाद ने आदमी को लालची भी बनाया और अपराधी भी, पर अब कोई यह सोचे कि ये सब जिन्दा रहेंगे, कालाधन ही जियेगा और संग्रह कि प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं रख पाएगा तो यह एक भवितव्यता मानी जानी चाहिए कि इन सब पर अब तेजी से नियंत्रण होने जा रहा है। पिछले दिनों भारतवर्ष सहित पूरे विश्व के पचास से अधिक देशों में हुए परिवर्तन बताते हैं कि असली सम्राट जनशक्ति है और अब कुछ भी छिपा नहीं रह सकता, चाहे वह स्विस बैंकों में छिपा धन ही क्यों न हो। आध्यात्मवाद तेजी से बढ़ता जा रहा है एवं हर व्यक्ति उसे स्वीकार करे, ऐसा वातावरण बनने जा रहा है। विज्ञान के उत्कर्ष कि बुराइयों को तेजी से नकारा जायेगा, छोटे-बड़े युद्धों कि संभावनाएँ निरस्त होंगी एवं मानव मात्र के लिए जीने, जन-जन के हित की योजनाओं को बनाने, लागू करने में ही शक्ति नियोजित होगी। स्वराज सही अर्थों में यही होगा।

हमारा यह दृढ़ विश्वास

गायत्री परिवार का अपनी संस्थापक सत्ता - आराध्य सत्ता की इस जन्म शताब्दी की वेला में ऐसा मानना है की युग-परिवर्तन की प्रक्रिया-महापरिवर्तनों की वेला - इक्कीसवीं सदी आ गयी है। २०११ से यह कार्य और भी तीव्र गति से चलेगा, गेयर बदलकर आगे बढ़ेगा और किसी के रोके नहीं रुकेगा। क्रांतियाँ तेजी से होंगी। सूक्ष्मजगत की विधि-व्यवस्था इन दिनों हिमालय की ऋषिसत्ताओं के हाथ में है। वे ही इन महापरिवर्तनों की व्यवस्था का संचालन कर रहे हैं। हमें तो निमित्तमात्र बनकर साथ भर चलना है। लक्ष्य एक ही है - मानव में देवत्व का उदय। इसी से धरती पर सतयुग आएगा एवं इसका प्रमाण मिल रहा है उषाकाल-प्रभातपर्व की इस वेला में उस अरुणोदय से, जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है। किसी को भी इसमें संशय नहीं होना चाहिए। कहीं आप असमंजस में तो नहीं? यह समय बदलने का है। बदल जाइये

 - (अखंड ज्योति, मार्च २०११. पृष्ठ ५ - ७)

Tuesday 22 March, 2011

गायत्री साधना क्यों?

कई व्यक्ति सोचते हैं की हमारा उद्देश्य इश्वर प्राप्ति, आत्म-दर्शन और जीवन मुक्ति है। हमें गायत्री के, सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पड़ने से क्या प्रयोजन है? हमें तो केवल ईश्वर आराधना करनी चाहिए। सोचने वालों को जानना चाहिए की ब्रह्म सर्वथा निर्विकार, निर्लेप, निरञ्जन, निराकार, गुणातीत है। वह न किसी से प्रेम करता है,  न द्वेष। वह केवल द्रष्टा एवं कारण रूप है। उस तक सीधी पहुँच नहीं हो सकती, क्योंकि जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म प्रकृति (एनेर्जी) का सघन आच्छादन है। इस आच्छादन को पार करने के लिए प्रकृति के साधनों से ही कार्य करना पड़ेगा। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, कल्पना, ध्यान, सूक्ष्म शरीर, षट्चक्र, इष्टदेव की ध्यान प्रतिमा, भक्ति, भावना, उपासना, व्रत, अनुष्ठान, साधना यह सभी तो माया निर्मित ही है। इन सभी को छोड़कर ब्रह्म प्राप्ति किस प्रकार होनी संभव है? जैसे ऊपर आकाश में पहुँचने के लिए वायुयान की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लिए भी प्रतिमूलक आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। गायत्री के आचरण में होकर पार जाने पर ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। सच तो यह है कि साक्षात्कार का अनुभव गायत्री के गर्भ में ही होता है। इससे ऊपर पहुँचने पर सूक्ष्म इन्द्रियाँ और उनकी अनुभव शक्ति भी लुप्त हो जाती है। इसीलिए मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति चाहने वाले भी 'गायत्री मिश्रित ब्रह्म' की, राधेश्याम, सीताराम, लक्ष्मीनारायण की ही उपासना करते हैं। निर्विकार ब्रह्म का सायुज्य तो तभी होगा, जब ब्रह्म 'बहुत से एक होने' कि इच्छा करेगा और सब आत्माओं को समेटकर अपने में धारण कर लेगा। उससे पूर्व सब आत्माओं का सविकार ब्रह्म में ही सामीप्य, सारुप्य, सायुज्य आदि हो सकता है। इस प्रकार गायत्री मिश्रित सविकार ब्रह्म ही हमारा उपास्य रह जाता है। उसकी प्राप्ति के साधन जो भी होंगे, वे सभी सूक्ष्म प्रकृति गायत्री द्वारा ही होंगे।

गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसंबंध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरंतर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अंतःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रुपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे-जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे-वैसे अन्धकार का अंत भी उसी क्रम से होता जाता है।

मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सतोगुणी एवं संतुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट है कि जिसकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते हैं और कार्यों के परिणाम सुख-दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिसके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम होंगे, उसके चरणों तले सुख-शांति लोटती रहेगी।

गायत्री उपासना द्वारा साधकों को बड़े-बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे परामर्श एवं पथ-प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं, हमने अपनी आँखों से देखे हैं। इसका कारण यही है कि उन्हें दैवी वरदान के रूप में सदबुद्धि प्राप्त होती है और उसके प्रकाश में उन सब दुर्बलताओं, उलझनों, कठिनाइयों का हल निकल आता है, जो मनुष्य को दीन-हीन, दुःखी, दरिद्र, चिंतातुर, कुमार्गगामी बनती हैं। जैसे प्रकाश का न होना अन्धकार है, जैसे अन्धकार स्वतंत्र रूप से कोई वस्तु नहीं है; इसी प्रकार सद्ज्ञान का न होना ही दुःख है, उसकी रचना भी वैसे ही है। केवल मनुष्य अपनी आतंरिक दुर्बलता के कारण, सद्ज्ञान के अभाव के कारण दुःखी रहता है, अन्यथा सुर दुर्लभ मानव शरीर "स्वर्गादपि गरीयसी" धरती माता पर दुःख का कोई कारण नहीं, यहाँ सर्वत्र, सर्वथा आनंद ही आनंद है।

सद्ज्ञान की उपासना का नाम ही गायत्री उपासना है। जो इस साधना के साधक हैं, उन्हें आत्मिक एवं सांसारिक सुखों की कमी नहीं रहती, ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास और दीर्घकालीन अनुभव है।
 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Sunday 20 March, 2011

धैर्य

साधक का पहला लक्षण है - धैर्य! धैर्य की रक्षा ही भक्ति की परीक्षा है। जो अधीर हो गया, सो असफल हुआ। लोभ और भय के, निराशा और आवेश के जो अवसर साधक के सामने आते हैं, उनमें और कुछ नहीं, केवल धैर्य परखा जाता है। सदा प्रसन्न रहो। मुसीबतों का खिले चेहरे से सामना करो। आत्मा सबसे बलवान है, इस सच्चाई पर दृढ़ विश्वास रखो। यही ईश्वरीय विश्वास है। इस विश्वास द्वारा आप समस्त कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं।

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य

युग परिवर्तन की वेला में पालन करने योग्य पंचशील

(१.) अपना एक संसार बसाइए और अलग रहिये; अलग अर्थात भौतिकता से हटकर।
(२.) अपनी इच्छाओं को मन कडा करके बदल डालिए।
(३.) कर्मयोगी की तरह से जियें।
(४.) जो चीजें पास हैं, उनका ठीक से इस्तेमाल करें, यथा - समय, श्रम, इन्द्रियां।
(५.) जो पास है, उसे अकेले न खाएँ, सारे समाज को बांटकर प्रयोग करें। यज्ञीय जीवन की वृत्ति विकसित करें।


 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Monday 14 March, 2011

मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पारमार्थिक कार्यों में निरन्तर प्रेरणा देने वाली आत्मिक स्थिति जिनकी बन गई होगी, वे ही युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए देर तक धैर्यपूर्वक कुछ कर सकने वाले होंगे। ऐसे ही लोगों के द्वारा ठोस कार्यों की आशा की जा सकती है। गायत्री आन्दोलन में केवल भाषण सुनकर या यज्ञ- प्रदर्शन देखकर जो लोग शामिल हुए थे, वे देर तक अपनी माला साधे न रह सके, पर जिन लोगों ने गायत्री साहित्य पढक़र, विचार मंथन के बाद इस मार्ग पर कदम बढ़ाया था, वे पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं। युग-निर्माण कार्य के लिए हम उत्तेजनात्मक वातावरण में अपरिपक्व लोगों को साथ लेकर बालू के महल जैसा कच्चा आधार खड़ा नहीं करना चाहते।

इसलिए इस संघ में उन्हीं लोगों पर आशा भरी नजर डाली जाएगी जो बात को गहराई तक समझ  चुके हैं, उसकी जड़ तक जा चुके हैं। वरना आधे-सीधे लोगों का भानुमती का कुनबा इकट्ठा करके कोई संगठन बना लिया जाए, तो वह ठहरता कहाँ है? गायत्री परिवार की कितनी  ही शाखाएँ इसी प्रकार ठप्प हुईं। अब उस गलती को दुबारा नहीं दुहराना चाहिए। जिन लोगों की दृष्टि में विचारों का कोई मूल्य या महत्त्व नहीं, वे किसी कार्य में देर तक कब ठहरने वाले हैं ? जो लोग अखण्ड-ज्योति नहीं मँगा सके, जो गायत्री साहित्य नहीं पढ़ सके, वे किसी समय बड़े भारी श्रद्धावान दीखने वाले साधक भी आज सब कुछ छोड़े बैठे दीखते हैं। प्रेरणा का सूत्र टूट गया, अपना निज का कोई गहरा स्तर था नहीं, फिर उनके पैर भौतिक बाधाओं के झकझोरे में कब तक टिके रहते?

इसीलिए हम यह बारीकि से देखते रहते हैं कि सामने बैठा हुआ, लम्बी-चौड़ी  बातें बनाने वाला व्यक्ति हमारी विचारधारा के साथ अखण्ड-ज्योति या साहित्य के माध्यम से बँधा है या नहीं? यदि वह इस की उपेक्षा करता है तो हम समझ लेते हैं कि यह देर तक टिकने वाला नहीं है। जो हमारे विचारों को प्यार नहीं करते, उनका मूल्य नहीं समझते वे शिष्ठाचार में मीठे शब्द भले ही कहें, गुरुजी-गुरुजी, वस्तुत: वे हमसे हजारों मील दूर हैं, उनसे किसी बड़े काम की कोई आशा नहीं रखी जा सकती।

  - पं श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (२.५०)

Sunday 13 March, 2011

नारी की क्षमता विकसित होने दी जाए

शताब्दियों से नर ने नारी का, पत्नी, पुत्री और माता का रिश्ता होते हुए भी बेतरह शोषण किया है। एक ओर उसे जेवर-कपड़े से सजाता रहा और गीत-वाद्यों में उसके रूप, यौवन की सराहना करने में अतिशयोक्ति का अन्त करता रहा। दूसरी ओर उसे पददलित, पराधीन और अपंग बनाने में भी कोई कमी न रखी, जिस तरह बेईमान दुकानदार लेने के बाँट अलग और देने के अलग रखकर बेईमानी पर पर्दा डाले रहता है।

पिछले दिनों जो किया गया है, उसका प्रायश्चित करके ही नर अपनी कलंक कालिमा धो सकता है। भूल सुधार की मॉंग है कि नारी पर से पाशविक प्रतिबंध अविलम्ब हटाये जाएँ, उसे पर्दा प्रथा से मुक्त किया जाए। प्रायश्चित की मॉंग है कि नारी का पिछड़ापन दूर करने के लिए नर न्यायानुकूल से बढक़र उसकी कुछ अतिरिक्त सहायता करे। बीमारी से छूटने पर दुर्बल व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ कराने के लिए उसके घर वाले कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार आदि की सुविधाएँ देते हैं, उसी प्रकार, नर के अन्दर यदि आत्मा मौजूद हो तो उसे उसी के अन्याय से दुर्बल नारी को समर्थ, स्वावलम्बी बनाने के लिए कुछ अतिरिक्त सहायता देनी चाहिए। यह सहायता भोजन-वस्त्र के रूप में नहीं, बन्धनों से थोड़े अवकाश के रूप में दी जाए। उसे सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने दिया जाए । घर से बाहर निकालने में जो हजार शंका-कुशंकाएँ की जाती हैं, उस ओछेपन से अपने को विरत कर लिया जाय।

इन दिनों नारी के सामने समाज सेवा का कोई स्पष्ट चित्र, रूप या कार्यक्षेत्र नहीं है, इसलिए इच्छा होते हुए भी कुछ कर नहीं पाती। शिक्षा पर्याप्त हो गई। विवाह का योग नहीं बना। खाली समय काटना अखरा। बस वह अध्यापिका जैसी कोई नौकरी कर लेती है और फिर कुछ कमाने का चस्का पड़ जाने से तथा एक ढर्ऱा पड़ जाने से वह उसी क्रम को अन्त तक अपनाये रहती है। शिक्षा का यह कोई श्रेष्ट सदुपयोग नहीं है। जिनके घर में पैसे की तंगी है, वे नौकरी करें तो बात समझ में आती है। फिर जिन्हें इस प्रकार की कोई विवशता नहीं है, गुजारे में कठिनाई नहीं है, उन्हें नौकरी की ओर नहीं, नारी सेवा जैसे जीवन को धन्य बनाने वाले महान कार्य की ओर आकर्षित होना चाहिए। यदि ऐसा किया जा सके तो विश्व को चकाचौंध कर देने वाले अगणित नारी रत्न अपने देश में अनायास ही पैदा हो जाएगें।

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (१.६४)

गायत्री मंत्र लेखन साधना के सन्दर्भ में

गायत्री मंत्र लेखन का महत्व कम नहीं माना जाता। मंत्र जप से इसका महत्व अधिक ही है। मंत्र जप करते समय ऊंगलियों से जप और जिह्वा से उच्चारण होता है। मन को इधर-उधर भागने कि काफी गुंजाइश रहती है। परन्तु गायत्री मंत्र लेखन के समय हाथ, आँखें, मस्तिष्क एवं सभी चित्तवृत्तियाँ एकाग्र हो जाती हैं, क्योंकि लिखने का कार्य एकाग्रता चाहता है। मन को वश में करके एकाग्र भाव की साधना मंत्र लेखन में भली-भांति बन पड़ती है। इसी से इसका महत्व भी बहु माना गया है। तभी तो कहा गया है -


यज्ञात्प्राणस्थितिर्मंत्रे, जपान्मंत्रस्य  जागृतिः।
अति प्रकाशवान्श्चैव, मंत्रो भवति लेखनात्।।

हवन से मंत्र में प्राण आते हैं, जप से मंत्र जाग्रत होता है और लिखने से मंत्र की शक्ति आत्मा में प्रकाशित होती है। श्रद्धापूर्वक यदि मंत्र लेखन किया जाए तो उसका प्रभाव जप से दस गुना अधिक होता है। शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र लेखन एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधना विधि है। इसमें स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध सभी प्रसन्नतापूर्वक भाग ले सकते हैं। किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी समय मिले, मंत्र लेखन किया जा सकता है। चौबीस हजार मंत्र जप का एक अनुष्ठान होता है। जप की अपेक्षा मंत्र लेखन का पुण्य दस गुना अधिक है, अतः चौबीस सौ मंत्र लेखन से ही एक अनुष्ठान पूरा हो जाता है।

समय को पहचानिए

मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार के सौभाग्य आते हैं और उन सौभाग्यों के लिए आदमी सदा अपने आपको सराहता रहता है। ऐसे सौभाग्य कभी-कभी ही आते हैं हमेशा नहीं । लेकिन आदमी का सबसे बड़ा सौभाग्य एक ही है कि वह समय को पहचान पाए। आदमी समय को पहचान लें तो मैं समझता हूँ कि इससे बड़ा सौभाग्य दुनिया में कोई हो ही नहीं सकता।

ऊंचे उद्दशेय के लिए, ख़ास तौर से उस समय जबकि भगवान अवतार लिया करते हैं तब जो आदमी उनके कंधे से अपना कन्धा मिला लेते हैं, वे शानदार हो जाते हैं और अपनी भूमिका निभाते हैं।

मित्रो! आदमियों कि अपनी जरूरत होती है, यह तो में नहीं कह सकता कि जरूरत नहीं होती, पर कभी-कभी भगवान को भी आदमियों कि जरूरत होती है। हमेशा नहीं, कभी-कभी जरूरत पड़ती है। और उस कभी-कभी को, मौके को, जो पहचान लेते हैं, वे गिलहरी के तरीके, केवट के तरीके से, शबरी के तरीके से और रीच वानरों के तरीके से उनकी सहायता के लिए चल पड़ते हैं और धन्य बन जाते हैं।

जिस समय में हम और आप रह रहे हैं वह ऐसा शानदार समय है कि आपकी जिंदगी में और इतिहास में फिर नहीं आएगा।

आपका मन बड़े फायदे उठाने का है और बड़े फायदे लायक आपका व्यक्तित्व है, हिम्मत है, तो आप आइए, इस मौके को गँवाइये नहीं। इस मौके का पूरा-पूरा फायदा उठाइए। आप लोगों में से एक-एक को हम झकझोरते हैं और कहते हैं।

अब हमें अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार करने के लिए आपकी सहायता कि जरूरत है। इसके लिए अब हमको वह वर्ग ढूँढना पड़ेगा, जिनको विचारशील वर्ग कहते हैं। अब हमें इंजीनियरों की जरुरत है, डाक्टरों कि जरूरत है, सिपाहियों कि जरूरत है, ओवरसियरों कि जरूरत है, हमको उनकी जरूरत है जो राष्ट्र के निर्माण में काम आ सकें।

आप आइए और हमारी मिलिट्री में भर्ती हो जाइए। आपमें हर आदमी को प्रज्ञावतार के कंधे-से-कन्धा मिलाने के लिए हम आपको दावत देते हैं, विशेषकर उन लोगों को जिन्होंने अपनी आदतें ठीक कर रखी हैं, परिश्रमी हैं, चरित्रवान हैं और जिनका वजन भारी नहीं है अर्थात जिम्मेदारियों का बोझ हल्का है। ऐसे लोगों के लिए सबसे बेहतरीन काम यह है कि अपना गुजारा करने के बाद में वे समाज के काम आएँ, देश के काम आएँ।

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य

इच्छा शक्ति

संसार की सारी सफलताओं का मूलमंत्र है - प्रबल इच्छा शक्ति। इसी के बल पर विद्या, संपत्ति और साधनों का उपार्जन होता है। यही वह आधार है जिस पर आध्यात्मिक तपस्याएँ और साधनाएँ निर्भर रहती हैं। यही वह दिव्य संबल है, जिसे पाकर संसार में खाली हाथ आया मनुष्य वैभवशाली बनकर संसार को चकित कर देता है। यही वह मोहक और वशीकरण मंत्र है, जिसके बल पर एक अकेला पुरुष कोटि-कोटि जनगण को अपना अनुयायी बना लेता है।

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Saturday 12 March, 2011

जीवन देवता की साधना - आराधना

ऋषि ने पुछा - "कस्मै देवाय हविषा विधेम" अर्थार्त "हम किस देवता की आराधना करें" उसका सुनिश्चित उत्तर है आत्म-देव अर्थात जीवन देवता की।
पेड़ पर फल-फूल ऊपर से टपक कर नहीं लदते, वरन जड़ें जमीन से जो रस खींचती हैं उसी से वृक्ष बढ़ता है और फलता-फूलता है। जड़ें अपने अन्दर हैं, जो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। इसी प्रखरता के आधार पर वे सिद्धियाँ -विभूतियाँ प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर आध्यात्मिक महानता और भौतिक प्रगतिशीलता के उभय-पक्षीय लाभ मिलते हैं। जिसने इस लक्ष्य को समझा है उन्होंने ही चरम लक्ष्य तक पहुँचने का राजमार्ग पा लिया।

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवन देवता की साधना - आराधना (२) - १.७

Monday 7 March, 2011

एकांत

एकांत सकारात्मक हो तो उसमें चिंतन, चेतना और व्यक्तित्व परिपक्व होते हैं। यदि स्थिति नकारात्मक हो तो एकांत पीड़ा बन जाता है और एकाकीपन गहरी यातना। यह पीड़ा और यातना उनके लिए है, जो भीड़ में स्वयं को खो चुके हैं, लेकिन जिन्हें अपनी निजता कि पहचान है, वे अपने एकांत के अकेलेपन में स्वयं के अंतर-आकाश में जीने का आनंद उठाते हैं और अनुभव करते हैं कि उनका अकेलापन उनके ही ह्रदय-सरोवर में विकसित हुआ कमल है, जिसकी सुवास से उनका समूचा व्यक्तित्व अनायास महकने लगता है।
संतों साधकों एवं ज्ञानियों  ने एकांत के तीन रूप बताए हैं - वन का एकांत, संसार व सांसारिक जीवन में किसी कोने का एकांत और तीसरा है अपने मन का एकांत। वन का एकांत सुगम है, सहज है, इसमें कोई विशेष परेशानी नहीं है, लेकिन संसार में सांसारिक जीवन में रहते हुए स्वयं को किसी कोने में छिपा लेना कठिन है; क्योंकि इसमें सांसारिक कामनाएँ, वासनाएँ व आकर्षण बार-बार बाधा उत्पन्न करते हैं। जो इन्हें साध लेता है, वही मन के एकांत में प्रवेश करता है। यह परम दुर्लभ व सर्वश्रेष्ठ है।
यह मन का एकांत ही ध्यान है। जब व्यक्ति इसमें सक्षम हो जाता है, तब उसकी परम एकाकीपन की और यात्रा प्रारंभ होती है। यहाँ कोई किसी के साथ नहीं जा सकता। बाहर के जगत के सारे सम्बन्ध टूट जाते हैं, सारे सेतू टूट जाते हैं, यथार्थ में सारा जगत ही विलीन हो जाता है। संभवतः इसी वजह से ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। इसका मतलब यह नहीं की संसार नहीं है। संसार तो है, पर ध्यानी के लिए यह जगत करीब-करीब मिट जाता है। इसके सारे सम्बन्ध, सारा शोरगुल मन के एकांत के गहन मौन को बेध नहीं पाते। इसी एकांत में जो आनंद का परम विस्फोट होता है, वही साधक को परमसत्ता की अनुभूति प्रदान करता है।

 - (अखण्ड ज्योति, अक्टूबर २०११, पृष्ठ ३)

Sunday 6 March, 2011

धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं

धर्म के प्रति एक भ्रान्ति इसके अंग्रेजी अनुवाद ने उत्पन्न कर दी, अंगरेजी में धर्म को 'रिलीजन' कहा गया, वास्तव में रिलीजन शब्द से जो ध्वनि निकलती है उससे संकीर्णता का एहसास होता है। 'धर्म' से जब 'रिलीजन' माना जाने लगा तो इसका अर्थ यही लगाया जाने लगा कि यह एक विशेष प्रकार की पूजा आराधना पद्धति में आस्था-विश्वास रखने वाला तथा एक प्रकार के मार्ग पर यंत्रवत चलने वाला तथा सम्प्रदाय विशेष है। रिलीजन शब्द से एक ऐसे संकुचित व अपूर्ण भाव का बोध होता है कि उसमे धर्म तत्त्व समाहित नहीं होता। धर्म का अनिवार्य तत्त्व उसकी उदारता, महानता, सार्वभौम सत्ता में निहित है जिसका लक्ष्य ही "सर्वे भवन्तु सुखिनः - सर्वे सन्तु निरामया" है जबकि रिलीजन में इस तरह के भाव प्रकट नहीं होते।
 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३) - १.४

धर्म अप्रभावित है

वास्तव में धर्म तो एक ही है। धर्म के लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए जो अलग-अलग पद्धतियाँ प्रचलित हैं, वे धर्म नहीं वरन् सम्प्रदाय हैं। धर्म तो मानो महासागर है और संप्रदाय नदियाँ हैं, जो विभिन्न स्थानों और दिशाओं से आकर इस महासागर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विलीन हो जाती हैं। यदि इन नदियों को ही भ्रमवश कोई सागर समझ लें व अपने सागर होने की महत्ता का ही ढिंढोरा पीटने लगे तो पीटने पर नदी सागर तो बन नहीं सकती। धर्म का तो एक ही लक्ष्य है 'सत्यम', 'शिवम्', और 'सुन्दरम' अर्थात ऐसे आचरण जो सत्य हों, शुभ हों, और कल्याणकारी हों। धर्म के इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए विभिन्न मार्ग जैसे पूजा, उपासना,अनुष्ठान आदि की व्यवस्था विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित रहती है। इनमें से किसी सम्प्रदाय में कोई पद्धति विशेष अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती है, किसी में कम। इसी से हम इन पद्धतियों के प्रभावी होने न होने को यह मान लेते हैं मानो अमुक धर्म अमुक से श्रेष्ठ अथवा निम्नतर है। वास्तव में धर्म तो अपने स्थान पर स्थिर, अटल, शाश्वत है, उस तक पहुँचने के मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक अथवा कष्टप्रद हो सकते हैं, परन्तु उनके कारण धर्म प्रभावित नहीं होता। 

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य
 धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३) - १.४

Saturday 5 March, 2011

धर्म-धारणा हर दृष्टि से उपयोगी

धर्म को प्रतिगामी एवं अन्धविश्वासी कहना आज का फैशन है। तथाकथित बुद्धिवादी प्रगतिशीलता के जोश में धर्म को अफीम की गोली कहते और उसे प्रगती का अवरोध ठहराते पाये जाते हैं, पर यह बचकानी प्रवृति मात्र है। गम्भीर चिन्तन से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य के अन्तराल में आदर्शवादी आस्था बनाये रहना और नीति-मर्यादा का पालन करना धर्मधारणा के सहारे ही सम्भव हो सकता है। भौतिक लाभों को प्रधानता देकर चलने और सदाचरण के अनुबन्धों को तोड़ देने से उपलब्ध सम्पदाएँ दुष्प्रवृत्तियों को ही बढ़ायेंगी और अन्ततः विनाश का कारण बनेंगी।

 - पं श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३) - १.१