वास्तव में धर्म तो एक ही है। धर्म के लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए जो अलग-अलग पद्धतियाँ प्रचलित हैं, वे धर्म नहीं वरन् सम्प्रदाय हैं। धर्म तो मानो महासागर है और संप्रदाय नदियाँ हैं, जो विभिन्न स्थानों और दिशाओं से आकर इस महासागर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विलीन हो जाती हैं। यदि इन नदियों को ही भ्रमवश कोई सागर समझ लें व अपने सागर होने की महत्ता का ही ढिंढोरा पीटने लगे तो पीटने पर नदी सागर तो बन नहीं सकती। धर्म का तो एक ही लक्ष्य है 'सत्यम', 'शिवम्', और 'सुन्दरम' अर्थात ऐसे आचरण जो सत्य हों, शुभ हों, और कल्याणकारी हों। धर्म के इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए विभिन्न मार्ग जैसे पूजा, उपासना,अनुष्ठान आदि की व्यवस्था विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित रहती है। इनमें से किसी सम्प्रदाय में कोई पद्धति विशेष अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती है, किसी में कम। इसी से हम इन पद्धतियों के प्रभावी होने न होने को यह मान लेते हैं मानो अमुक धर्म अमुक से श्रेष्ठ अथवा निम्नतर है। वास्तव में धर्म तो अपने स्थान पर स्थिर, अटल, शाश्वत है, उस तक पहुँचने के मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक अथवा कष्टप्रद हो सकते हैं, परन्तु उनके कारण धर्म प्रभावित नहीं होता।
- पं श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३) - १.४
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३) - १.४
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