ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
उस प्राण स्वरुप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

Sunday 13 March, 2011

गायत्री मंत्र लेखन साधना के सन्दर्भ में

गायत्री मंत्र लेखन का महत्व कम नहीं माना जाता। मंत्र जप से इसका महत्व अधिक ही है। मंत्र जप करते समय ऊंगलियों से जप और जिह्वा से उच्चारण होता है। मन को इधर-उधर भागने कि काफी गुंजाइश रहती है। परन्तु गायत्री मंत्र लेखन के समय हाथ, आँखें, मस्तिष्क एवं सभी चित्तवृत्तियाँ एकाग्र हो जाती हैं, क्योंकि लिखने का कार्य एकाग्रता चाहता है। मन को वश में करके एकाग्र भाव की साधना मंत्र लेखन में भली-भांति बन पड़ती है। इसी से इसका महत्व भी बहु माना गया है। तभी तो कहा गया है -


यज्ञात्प्राणस्थितिर्मंत्रे, जपान्मंत्रस्य  जागृतिः।
अति प्रकाशवान्श्चैव, मंत्रो भवति लेखनात्।।

हवन से मंत्र में प्राण आते हैं, जप से मंत्र जाग्रत होता है और लिखने से मंत्र की शक्ति आत्मा में प्रकाशित होती है। श्रद्धापूर्वक यदि मंत्र लेखन किया जाए तो उसका प्रभाव जप से दस गुना अधिक होता है। शास्त्रों के अनुसार गायत्री मंत्र लेखन एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधना विधि है। इसमें स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध सभी प्रसन्नतापूर्वक भाग ले सकते हैं। किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी समय मिले, मंत्र लेखन किया जा सकता है। चौबीस हजार मंत्र जप का एक अनुष्ठान होता है। जप की अपेक्षा मंत्र लेखन का पुण्य दस गुना अधिक है, अतः चौबीस सौ मंत्र लेखन से ही एक अनुष्ठान पूरा हो जाता है।

No comments: