एकांत सकारात्मक हो तो उसमें चिंतन, चेतना और व्यक्तित्व परिपक्व होते हैं। यदि स्थिति नकारात्मक हो तो एकांत पीड़ा बन जाता है और एकाकीपन गहरी यातना। यह पीड़ा और यातना उनके लिए है, जो भीड़ में स्वयं को खो चुके हैं, लेकिन जिन्हें अपनी निजता कि पहचान है, वे अपने एकांत के अकेलेपन में स्वयं के अंतर-आकाश में जीने का आनंद उठाते हैं और अनुभव करते हैं कि उनका अकेलापन उनके ही ह्रदय-सरोवर में विकसित हुआ कमल है, जिसकी सुवास से उनका समूचा व्यक्तित्व अनायास महकने लगता है।
संतों साधकों एवं ज्ञानियों ने एकांत के तीन रूप बताए हैं - वन का एकांत, संसार व सांसारिक जीवन में किसी कोने का एकांत और तीसरा है अपने मन का एकांत। वन का एकांत सुगम है, सहज है, इसमें कोई विशेष परेशानी नहीं है, लेकिन संसार में सांसारिक जीवन में रहते हुए स्वयं को किसी कोने में छिपा लेना कठिन है; क्योंकि इसमें सांसारिक कामनाएँ, वासनाएँ व आकर्षण बार-बार बाधा उत्पन्न करते हैं। जो इन्हें साध लेता है, वही मन के एकांत में प्रवेश करता है। यह परम दुर्लभ व सर्वश्रेष्ठ है।
यह मन का एकांत ही ध्यान है। जब व्यक्ति इसमें सक्षम हो जाता है, तब उसकी परम एकाकीपन की और यात्रा प्रारंभ होती है। यहाँ कोई किसी के साथ नहीं जा सकता। बाहर के जगत के सारे सम्बन्ध टूट जाते हैं, सारे सेतू टूट जाते हैं, यथार्थ में सारा जगत ही विलीन हो जाता है। संभवतः इसी वजह से ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। इसका मतलब यह नहीं की संसार नहीं है। संसार तो है, पर ध्यानी के लिए यह जगत करीब-करीब मिट जाता है। इसके सारे सम्बन्ध, सारा शोरगुल मन के एकांत के गहन मौन को बेध नहीं पाते। इसी एकांत में जो आनंद का परम विस्फोट होता है, वही साधक को परमसत्ता की अनुभूति प्रदान करता है।
- (अखण्ड ज्योति, अक्टूबर २०११, पृष्ठ ३)
संतों साधकों एवं ज्ञानियों ने एकांत के तीन रूप बताए हैं - वन का एकांत, संसार व सांसारिक जीवन में किसी कोने का एकांत और तीसरा है अपने मन का एकांत। वन का एकांत सुगम है, सहज है, इसमें कोई विशेष परेशानी नहीं है, लेकिन संसार में सांसारिक जीवन में रहते हुए स्वयं को किसी कोने में छिपा लेना कठिन है; क्योंकि इसमें सांसारिक कामनाएँ, वासनाएँ व आकर्षण बार-बार बाधा उत्पन्न करते हैं। जो इन्हें साध लेता है, वही मन के एकांत में प्रवेश करता है। यह परम दुर्लभ व सर्वश्रेष्ठ है।
यह मन का एकांत ही ध्यान है। जब व्यक्ति इसमें सक्षम हो जाता है, तब उसकी परम एकाकीपन की और यात्रा प्रारंभ होती है। यहाँ कोई किसी के साथ नहीं जा सकता। बाहर के जगत के सारे सम्बन्ध टूट जाते हैं, सारे सेतू टूट जाते हैं, यथार्थ में सारा जगत ही विलीन हो जाता है। संभवतः इसी वजह से ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। इसका मतलब यह नहीं की संसार नहीं है। संसार तो है, पर ध्यानी के लिए यह जगत करीब-करीब मिट जाता है। इसके सारे सम्बन्ध, सारा शोरगुल मन के एकांत के गहन मौन को बेध नहीं पाते। इसी एकांत में जो आनंद का परम विस्फोट होता है, वही साधक को परमसत्ता की अनुभूति प्रदान करता है।
- (अखण्ड ज्योति, अक्टूबर २०११, पृष्ठ ३)
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